ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना के साइड इफेक्ट
… अब न वो पेड़ है और न वो चबूतरा और न उसकी छांव…जहां सेवई के लोग चटख धूप, तेज बारिश में भी सुकून से बैठा करते थे..इस पेड़ की बड़ी भूमिका थी सेवई के जनमानस के बीच..वो सबको एक दूसरे से बांधे रखता था.. लोगों के आपसी मनमुटाव उसकी छांव में ही दूर होते थे
पत्रकार साथी सुनील नवप्रभात की कलम से- उस महान वृक्ष को मेरी भावपूर्ण श्रद्धांजलि
कर्णप्रयाग का गांव है सेवई..ठीक श्रीनगर के मलेथा गांव की तरह..मलेथा की ही तरह सेवई में लंबे चौड़े खेत है..जिनमें गूल के जरिए सिंचाई होती थी..एक लंबे फाट में जब फसलें लहलहाती थी, तो इनके किनारे सुरक्षा वाल की तरह बसे गांव का नजारा अदभुत होता था.. सेवई गांव में एक और चीज खास थी और वो थी इन खेतों के बीच खड़ा एक विशाल पेड़ और पेड़ के चारों ओर बड़ा चबूतरा..इसी चबूतरे में गांव की पंचायत हुआ करती थी..एक तरह से गांव की आन,बान,शान था ये पेड़.. हर सुख दुःख का साक्षी..उसने सेवई की कई पीढ़ियों को अपने सामने फलते-फूलते हुए देखा है.
लेकिन, अब सेवई विकास के नए पायदान चढ़ने को बेताब है..सोना उगलने वाले सेवई के इन खेतों में अब ऋषिकेश कर्ण प्रयाग रेलवे लाइन का स्टेशन बन रहा है..सेवई के खेतों में रेंगती बड़ी बड़ी मशीनों को देखकर लगता है मानो खेतों का दम घुट रहा हो..उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही हो…सेवई के हर उतार चढ़ाव का साक्षी रहा ये बूढा पेड़ शायद ये सब नहीं देख पाता..इसलिए सेवई के नई विकास यात्रा पर जाने से पहले सबसे आगे आकर उसने अपनी बलि दे दी…अब न वो पेड़ है और न वो चबूतरा और न उसकी छांव…जहां सेवई के लोग चटक धूप, तेज बारिश में भी सुकून से बैठा करते थे..इस पेड़ की बड़ी भूमिका थी सेवई के जनमानस के बीच..वो सबको एक दूसरे से बांधे रखता था.. लोगों के आपसी मनमुटाव उसकी छांव में ही दूर होते थे…पंचायत उसकी छांव में बैठकर ही गांव के मसले सुलझाया करती थी..अब सब अपने-अपने घरों में कैद हो गए हैं..कोई ऐसी छांव नहीं.. जगह नहीं, जो उस बूढ़े पेड़ की जगह ले सके.
आज भी गांव के खेतों में पड़ा उस बूढ़े पेड़ के अवशेष जैसे गांव वालों से..कंपनी वालों से कुछ कह रहा है.. कि मैं मरने के बाद भी अंतिम समय तक अपनी मिट्टी..अपनी थाती को नहीं छोडूंगा.. इसी मिट्टी में पैदा हुआ था..राख बनूंगा तो इसी मिट्टी में.
मैं तीन साल पहले 2020 में सेवई गांव गया था रिपोर्टिंग के सिलसिले में ..तब इसी पेड़ के नीचे मेरी गांव वालों से मुलाकात हुई थी..तीन साल बाद इसी हफ्ते फिर रिपोर्टिंग के सिलसिले में जाना हुआ..सबसे पहले उस पेड़ को देखने की उत्सुकता थी..पेड़ तो नहीं मिला…लेकिन उसका अवशेष पड़ा हुआ था…मेरे मन को लगा जैसे युद्ध भूमि में कवच कुंडल से परिपूर्ण किसी वीर योद्धा की हत्या कर दी गई हो..मन बेहद आहत हुआ..पेड़ नहीं दिखता तो शायद मुझे उतना दुख नहीं होता..लेकिन उसके सूखे पड़े शरीर को देखकर मैं भाबुक हो गया.. मेरे मन में कुछ इस तरह के भाव उमड़े..जिसे मैं उस बूढ़े पेड़ को ससम्मान श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित करता हूं.
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