खेती क्यों मायने रखती है, विषय पर दून पुस्तकालय व शोध केंद्र में हुई चर्चा

प्लांट जीनोमिक वैज्ञानिक, लेखिका और एसोसिएट प्रोफेसर ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी डॉ सुषमा नैथानी ने खेती पर कही खास बातें

खेती क्यों मायने रखती है विषय पर व्याख्यान

अविकल उत्तराखण्ड

देहरादून। दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से आज सांय प्लांट जीनोमिक वैज्ञानिक, लेखिका और एसोसिएट प्रोफेसर सीनियर रिसर्च, ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी, सुषमा नैथानी का एक व्याख्यान का आयोजन संस्थान के सभागार में किया गया।यह व्याख्यान खेती क्यों मायने रखती है विषय पर केन्द्रित था। डॉ. नैथानी का यह सारगर्भित व्याख्यान निश्चित तौर पर किसी भी संस्कृति या समाज की प्रगति में खेती के महत्व पर व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने में सक्षम रहा। समाज में खेती का काम कर रहे विविध किसानों , भूमि जोतों और कृषि पद्धतियों और इन सबके प्रभाव से जुड़ी कहानी पर डॉ. सुषमा नैथानी ने विस्तार से प्रकाश डाला।

व्याख्यान की अधिकांश बातचीत उनकी पुस्तक हिस्ट्री एंड साइंस ऑफ कल्टीवेटेड प्लांट्स पर आधारित थी। अपने व्याख्यान में डॉ. नैथानी ने बताया कि ग्रामीण समाज किस तरह किसान बना और वर्तमान औद्योगिक कृषि-आधारित सभ्यता तक किस तरह पहुंचे। अनेक मिथकों, ऐतिहासिक वृत्तांतों और वैज्ञानिक अवधारणाओं का उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि मानव ने अपने प्रयासों से कैसे जंगली पौधों से बड़े, स्वादिष्ट और अधिक पौष्टिक फल, सब्जियां और अनाज को आकार दिया और उसे विकसित किया। मानव सभ्यता के केंद्र में विभिन्न आर्थिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण फसलों का जिक्र करते हुए, उन्होंने फसल पौधों की उत्पत्ति, कृषि प्रतिरुपों के विकास, प्राकृतिक चयन बनाम पालतूकरण की मौलिक अवधारणाओं, प्रायोगिक और पद्धतिगत पौधों के प्रजनन और पौधों की जैव प्रौद्योगिकी पर भी प्रकाश डाला । उन्होंने जलवायु परिवर्तन, खेती के कम होते रकबे और अन्य सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के मद्देनजर दुनिया की बढ़ती आबादी को भोजन खिलाने की चुनौतियों और 21 वीं सदी और उसके बाद के एक स्थायी कृषि प्रणाली की आवश्यकता पर भी विस्तार से चर्चा की।

व्याख्यान से पूर्व दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी ने सभागार में उपस्थित लोगों का स्वागत किया। व्याख्यान के समापन में निकोलस हाॅफलैण्ड ने संस्थान की ओर से सभी का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर साहित्यकार, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी बिजू नेगी, राजेन्द्र गुप्ता, सुरेंद्र सजवाण, अरुण असफल, सूंदर सिंह बिष्ट और बिभूति भूषण भट्ट सहित शहर के अनेक बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और बड़ी संख्या में पुस्तकालय के युवा पाठक उपस्थित रहे। व्याख्यान के बाद लोगों ने डॉ.सुषमा नैथानी से सवाल जबाब भी किये।

पुस्तक के बारे में

हम सभी का खानपान से बेहद अंतरंग और प्राथमिक सम्बंध है। हम दुनिया के किसी भी हिस्से में हो, खानपान सम्बंधी चिंता हमारे मन में चाहे-अनचाहे बनी रहती है. बाजार से आटा, दाल, चावल, आलू, प्याज, फल-सब्जी, चाय, चीनी, कॉफी आदि उठाते समय हम सोचते रहते हैं कि अमुक चीज स्वास्थ्य पर कैसा असर डालेगीय उसमें पौष्टिक तत्वों की मात्रा कितनी है किसे उपयोग में और किसे उपवास में बरता जाना चाहिए आदि. लेकिन बहुतों को इस बात का अन्दाज नहीं होगा कि हम सबके खानपान सम्बंधी संस्कार, पूर्वाग्रह / चयन या दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों की खानपान से जुड़ी विशिष्ट पहचान के मूल में कृषि की एक लम्बी ऐतिहासिक यात्रा है, जिससे गुजरकर विभिन्न कृषि उत्पाद बाजार में सर्वसुलभ होकर हम तक पहुँचे हैं।

औद्योगिक क्रांति के बाद मानव आबादी का बड़ा हिस्सा खेती से अलग होकर अन्य कार्यों में लग गया. आज अमेरिका यूरोप के विकसित समाजों के एक फीसदी से भी कम लोग सीधे खेती से जुड़े हैं। भारत, चीन और अन्य एशियाई देशों में भी आबादी का 50ः से ज्यादा हिस्सा किसानी नहीं करता है. लेकिन कृषि और मनुष्य का सम्बंध जरा भी कम नहीं हुआ है. भले ही हम अन्न न उगाते हों /कई पीढ़ियों पहले हमारा परिवार किसानी छोड़ चुका हो / अन्न व खाद्य पदार्थों को पैदा करने वाले किसानों से भले ही हमारा सीधा वास्ता न हो तब भी कृषि उत्पादों पर हमारा जीवन, स्वास्थ्य, और समृद्धि टिकी हुई है और दस हजार वर्षों से चली आ रही कृषि-कथा ने हमारे अंतर्मन का एक बड़ा हिस्सा घेर रखा है। अन्न की टेढ़ी-मेढ़ी यात्रा को जानना अपने मन की इन्ही छिपी तहों के भीतर अनायास झाँक लेना है, और इस बहाने अपने अनगिनत पुरखों से रूबरू होना है जिनके जीवन के घनीभूत अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी छन-छनकर हमारे चेतन और अवचेतन पर अंकित हुए हैं।

कृषि के इतिहास-भूगोल-विज्ञान की कथा के पन्ने पलटना एक बेहद निजी, मीठी गुफ्तगू में उतरना है, जिसका लुत्फ साझा करके दुगना होता जाता है. इस किताब को लिखते समय लेखिका की कोशिश रही है कि एक सामान्य हिंदी पाठक के लिए कृषि से सम्बंधित कुछ मोटी-मोटी तथ्यपरक वैज्ञानिक जानकारी, तथा कृषि की टेढ़ी-मेढ़ी ऐतिहासिक यात्रा को आसान भाषा में, बिना तकनीकी शब्दावली में उलझाए रखे। संवाद को प्राथमिकता देते हुए कई जगहों पर अंग्रेजी के सरल और हिंदुस्तानी जबान में शामिल हो रहे शब्दों के इस्तेमाल को वरीयता दी गई है, और हिंदी में गढ़ी हुई गूढ़, अबूझ तकनीकी शब्दावली को सयास छोड़ दिया गया है।

कृषि मानव सभ्यता का पहला उद्यम भी है. अब भी, दुनिया की गरीब आबादी के बड़े हिस्से की आजीविका कृषि पर निर्भर करती है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में पचास फीसदी से ज्यादा लोग रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर हैं, और यहाँ की एक चैथाई राष्ट्रीय आय का स्रोत भी कृषि है. इसके अलावा, कृषिजन्य उत्पादों पर कई छोटे-बड़े कारोबार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर रहते हैं, और कृषि उत्पादों का निर्यात विदेशी मुद्रा कमाने का मुख्य जरिया है. अतरू कृषि की भूमिका देश के लिए राजनैतिक, सामरिक और आर्थिक महत्व की है।

मानव सभ्यता के अलग-अलग चरणों में कृषि का तत्कालीन समाज की राजनीति, अर्थव्यवस्था, तथा ज्ञान-विज्ञान से जो गहरा और अंतरगुम्फित सम्बंध रहा है उसपर प्रचलित अकादमिक कवायद से इतर सार्वजनिक बातचीत की भी जरूरत है, ताकि हम अपने समय की कृषि-नीतियों, किसानों, बाजार और उपभोक्ता के अंतर्संबंधों की कोई संगत समझ बना सकें और फिर उसकी रोशनी में पर्यावरण के साथ तालमेल बिठाते हुए वैश्विक जलवायु परिवर्तन से उपजी खाद्यान संकट की चुनौती का भविष्य में कोई हल ढूँढ सके।

कुल मिलाकर इस किताब में कृषि की शुरुआत से लेकर जैव-प्रौद्योगिकी से बनी जी॰ एम॰ (जेनेटिकली मोडिफायड या जीन सँवर्धित) फसलों तक के सफर के विवरण हैं. उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया में औद्योगिक कृषि के मॉडल की गम्भीर समीक्षा शुरू हुई है और छोटे-बड़े स्तरों पर तरह-तरह के वैकल्पिक प्रयोग शुरू हुए हैं. पुस्तक के अंत में एक संक्षिप्त टीप चुनिंदा नए प्रयोगों पर दी गई है।

लेखिका के बारे में

देहरादून की डॉ. सुषमा नैथानी अमेरिका के ओरेगॉन स्टेट यूनिवर्सिटी में वनस्पति विज्ञान और पादप रोग विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर रिसर्च हैं। सुषमा नैथानी ने एम.एस. जैव प्रौद्योगिकी में और पीएच.डी। वनस्पति विज्ञान (पादप आण्विक जीवविज्ञान) में। वह एक आणविक जीवविज्ञानी और जीनोमिक वैज्ञानिक हैं . इनके तकरीबन 50 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं। वह एल्सेवियर (2017-वर्तमान) द्वारा प्रकाशित करंट प्लांट बायोलॉजी जर्नल की प्रधान संपादक और प्लांट साइंस-प्लांट बायोटेक्नोलॉजी अनुभाग में फ्रंटियर की एसोसिएट एडिटर के रूप में कार्य करती हैं।

वह अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक वैज्ञानिक पत्रिकाओं की समीक्षक हैं।वह एक अंग्रेजी-हिंदी द्विभाषी लेखिका, कवयित्री और प्रकृति प्रेमी भी हैं। वह 1998 में संयुक्त राज्य अमेरिका चली गईं। वह कोरवालिस, ओरेगॉन में रहती हैं। उनके कुछ हिन्दी आलेख कादम्बिनी, हंस, पब्लिक एजेंडा, पहाड़ सहित कई अन्य प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं और कविता की एक पुस्तक उड़ते हैं अबाबील 2011 में प्रकाशित हुई थी। खेती के इतिहास और विज्ञान पर आधारित उनकी एक लोकप्रिय पुस्तक अन्न कहाँ से आता है नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई है।

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