चालीस के दशक में एक कैबरे डांस के 6 हजार लेती थी कुक्कू डांसर
अभिनेता प्राण से थी दोस्ती
हेलेन को भी संवारा था रबर गर्ल कुक्कू ने
30 सितंबर 1981 को 52 साल की उम्र में कर गयी दुनिया को अलविदा
आखिर वक्त में खाने के पड़े थे लाले, कैंसर से हुई मौत
– वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा के चालीस और पचास के दशक में कुक्कू का नाम ज़ुबां पर आते ही लोग झूमने लगते थे। उसकी पतली कमर में हाथ डालने के लिए दिल मचल उठता था। उसके चेहरे पर गज़ब की सम्मोहन शक्ति थी। कुक्कू कोई बेहतरीन अदाकारा नहीं थी, लेकिन फिर भी जन-जन की जान थी। लचीले जिस्म के मद्देनज़र उसे ‘रबर गर्ल’ भी कहा गया। वस्तुतः आज के संदर्भ में हिंदी सिनेमा की वो पहली कैबरे डांसर थी, आईटम गर्ल। असली नाम था, कुक्कू मोरे, एंग्लो-इंडियन परिवार से संबंधित।
1946 में सबसे पहले ‘अरब का सितारा’ में उसका कैबरे दिखा। महबूब खान की ‘अनोखी अदा’ ने उसे स्थापित कर दिया। फिर पीछे मुड़ कर उसने नहीं देखा। महबूब की ‘अंदाज़’ (1949) ये गाना अगर याद न हो तो यू-ट्यूब पर देख लें… तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता जाऊं…दिलीप कुमार पियानो पर गा रहे हैं, नरगिस मंत्रमुग्ध है, मगर सबकी निगाहें थिरकती हुई कुक्कू पर हैं।
महबूब खान की ‘आन’ (1952) में उसने क्लासिकल डांस में हिस्सा लिया…गाओ तराने मन के जी छम छम…राजकपूर की ‘बरसात’ (1949) का गाना याद करें…पतली कमर है तिरछी नज़र है…ऐसा लगता है शैलेन्द्र ने कुक्कू की पतली कमर को नज़र में रखते हुए ही लिखा था।
एक दो तीन आजा मौसम है हसीन
‘आवारा’ (1951) के उस फड़कते हुए डांस आईटम ने धूम ही मचा दी थी…एक दो तीन, आजा मौसम है रंगीन…इसके अलावा भी कुक्कू पर सोना चांदी, मिर्ज़ा साहिबां, नमूना, पारस, पतंगा, आरज़ू, बावरे नैन, हलचल, नौजवान, हंगामा, रेल का डिब्बा, मिस्टर एंड मिसेस 55, चलती का नाम गाड़ी, यहूदी आदि अनेक फिल्मों में डांस आईटम फिल्माए गए। आखिरी बार वो सुनील दत्त की ‘मुझे जीने दो’ (1963) में दिखीं और फिर गायब हो गयीं।
तीन-तीन लक्ज़री कार
कुक्कू का नाम फ़िल्मों के इतर भी खूब चर्चा में रहा। आर्टिस्टों का जमावड़ा हो कुक्कू न हो, हो ही नहीं सकता। उन्होंने अपनी मशहूरी को पूरी तरह से भुनाया। एक आइटम नंबर के छह हज़ार लेती थीं, जो चालीस के सालों में बहुत बड़ी रक़म थी। खूब ऐश की। तीन-तीन लक्ज़री कारें। एक अपने लिए, दूसरी कुत्तों को सैर कराने के लिए और तीसरी अपने ज़रूरतमंद दोस्तों के लिए। नामी नर्तकी हेलेन उनकी ही खोज है।
कुक्कू की खोज थी हेलेन
हेलेन बताती हैं, ‘शबिस्तां’ (1951) में कुक्कू पर डांस फ़िल्माया जा रहा था…साकी साकी आ मेरे साकी…ये ग्रुप डांस था, जिसमें मैं भी थी। कुक्कू ने मुझे देखा, सराहना की, बहुत अच्छा डांस करती हो। फिर उन्होंने मेरी कई जगह सिफारिश की। सोहराब मोदी की ‘यहूदी’ में हम दोनों ने साथ साथ डांस किया…बेचैन दिल है खोई सी नज़र है…
..जब बुरे दिन शुरू हुए
कुक्कू का दिल सोने का रहा। अनेक की आड़े वक़्त मदद की। इसमें प्राण साहब का नाम भी है। उनसे उनकी नज़दीकियां भी चर्चित रहीं। कुक्कू की मौज मस्ती को नज़र लग गयी। एक दिन इनकम टैक्स वाले आये और जो कमाया था, सब उठा ले गए। कुक्कू ठनठन गोपाल। कोई मदद को नहीं आया। लेकिन कुक्कू को ज़रा भी अफ़सोस नहीं हुआ, ग़लती तो मेरी ही थी।
आखिर कैंसर से हारी कुक्कू डांसर
फिर एक दौर ऐसा भी आया कि कुक्कू सड़क पर आ गयी। जिसे दिल दिया था, सर्वस्व लुटा दिया, वो भी भाग खड़ा हुआ। खाने के लाले पड़ गए। सड़क पर बिखरे सब्ज़ियों के पत्ते बटोरते देखा गया उनको। फिर उन्हें कैंसर हो गया। ईलाज तो दूर, पेन-किलर दवाएं खरीदने तक के लिए पैसे तक नहीं रहे। वो कुंवारी ही रहीं, न आगे कोई न पीछे, तन्हा ज़िंदगी। 30 सितंबर 1981 को उनके नसीब में जब मौत आई तो वो सिर्फ़ 52 साल की थीं, किसी की भी आँख से एक आंसू तक न गिरा।
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