डा0 एन0एस0 बिष्ट की कलम से
यह कैसी रार है, और कैसा विद्वेष है चिकित्सा विज्ञान के प्रति ? अव्वल तो एलोपैथी शब्द ही अप्रासंगिक है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को अन्य किसी नाम से नही जाना चहिए और न ही इसे अंग्रेजी इलाज कहना उचित होगा। ऐसी शब्दावलियों से औपनिवेशिक खुमारी की ही बू आती है, अंग्रेजी और पश्चिमीज्ञान के प्रति हमारा दुराग्रह झलकता है। विज्ञान पश्चिम की देन है, इसमे कोई दो राय नही हो सकती।
विज्ञान ने अपनी तकनीकी कला के सहारे पूरे विश्व को एक महागाॅव बना दिया है। मानवता का ऐसा एकत्व और जुड़ाव कईयों को रास नही आता। जो लोग विभाजन में ही अपनी कुंठाओं की संजीवनी ढूढतें हैं उनको बार-बार विभक्ति की रेखायें खींचनी भाती हैं। आपदाओं के वक्त जैसे मौका ही मिल जाता है अपनी पुर्नस्थापना के लिए। अपने मत को दूसरों पर जबरदस्ती थोपने तथा मिथ्या प्रचार के माध्यम से अपनी परम्परा को सफल और श्रेष्ठ बताने की होड़ सी लग जाती है। महामारी के वक्त जब जनता सही सूचना और परिपेक्ष्य के अभाव में मझधार मे झूल रही होती है तब छद्मसूचनाओं ,छद्मवैज्ञानिको और झूठे तारणहारों की एक और बाढ उन्हें घेर लेती है। एक सांस्कृतिक देश में अमूमन लोग प्राचीन चीजों के प्रति आस्थावान होते हैं - ऐसे में उनको गुमराह करना आसान भी होता है। भारत जैसे गरीब देश में जहाॅ स्वास्थ्य सुविधाओं का टोटा बना रहता है - वहाॅ स्वास्थ्यवर्धक चमत्कारी दवाओं के नाम पर बहुत ही सहजता से लोगो को अपनी तरफ मोड़ा जा सकता है। विज्ञान किसी पर थोपा नही जाता, न ही उसको अनुयायियों की जरूरत होती है। विज्ञान मानवीय प्रकृति की सहज जिज्ञासा और खोज है। एक बात और - विज्ञान हमेशा कम ही पड़ता है - कभी भी इंसान को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए क्योकि विज्ञान जीवन के प्रवाह की ही वौद्धिक धारा है और हमेशा चुनौतियों के पीछे ही रहता है। विज्ञान रूपी सड़क को बनाना और उस पर चलना साथ-साथ होता है इसलिए कई बार धुन्ध और कोलाहल का अंबार भी साथ चलता है। यहीं पर विज्ञान को कोसने वाले अपना खेल शुरू कर देते हैं। इसके उलट परम्परागत ज्ञान ठहरा हुआ है - वह शाश्वत स्थिर सत्य की तरह है - उसमें नवाचार और अनुसंधान की गुंजाईश नहीं के बराबर है। यह सच है, कि विज्ञान में परम्परागत ज्ञान को शोध कर अपने में समेट लेने की ताकत है किन्तु इससे परम्परागत ज्ञान
कभी विज्ञान में नही बदल जाता। इसी सच को समझने और स्वीकारने की जरूरत है। विज्ञान का ज्यादातर हिस्सा परम्परागत ज्ञान से ही परिष्कृत होकर आया है।
परम्पराओं के देश भारत में आयुर्वेद की जरूरत बनी रहेगी क्योकि आयुर्वेद भारतीयों की सांस्कृतिक जीवनशैली का हिस्सा भी है। आयुर्वेद अपने उसी विनम्र और धार्मिक सेवा भाव से यदि दीर्घावधि के कुछ रोगों में सस्ता ईलाज मुहैया कराता रहता है तो यह भारत जैसे विशालकाय देश की स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरतों के लिए अच्छा ही होगा।अब आते है रार की बात पर। झगड़ा शुरू किया है - विज्ञान से अछूते रह गये पुरातन वादियों ने। इतने बड़े देश में सभी को विज्ञान की शिक्षा मुहैया हो पाना सम्भव नहीं। जो लोग इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं वे पुराने ज्ञान को पकड़कर विज्ञान को अपना दुश्मन मान लेते हैं। खट्टे अंगूर वाला अविनम्र मुहावरा यहाॅ सटीक बैठता है। चूंकि रार का आधुनिक माध्यम भाषा है इसलिए भाषाई खेल को खूब खेला जाता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को पैथी की तरह एैलोपैथी के रूप में प्रचारित किया जाता है। ताकि उसे नैचुरोपैथी, आयुर्वेदपैथी, देसीपैथी इत्यादि के बराबर धरातल पर शाब्दिक रूप से उतारा जा सके। किन्तु आधुनिक विज्ञान पैथी की श्रेणी में बिल्कुल भी नहीं आता । पैथी शब्द पुराने स्वास्थ्य ज्ञान का समानार्थी है, विज्ञान से उसका कोई लेना देना नहीं। आयुर्वेद पद्धति के वैद्य अपना और अपने परिजनों का ईलाज आधुनिक विज्ञान के माध्यम से ही कराते हैं। ज्यादातर तो अपनी क्लीनिक में एैलोपैथिक दवाओं की पुड़िया बनाकर बेचते हैं।
इससे बुरा आयुर्वेद के लिए और क्या हो सकता हैं कि आयुर्वेद के प्रैक्टिसनर खुद शाब्दिक तौर पर ही आयुर्वेद के साथ खड़े दिखते हैं। रही सही कसर बाबाओं द्वारा अपने को वैज्ञानिकों के समकक्ष खड़ा करने से पूरी हो जाती है।
पढे लिखे वैज्ञानिक तो मूर्ख ही लगेंगे क्योंकि वो संस्कृति और परम्परा का चोला पहनकर नहीं घूम सकते। यह सच है कि आज के युग में सभी के लिए आधुनिक चिकित्सा की सुविधा एक मौलिक अधिकार है। किन्तु इसके अभाव या कमी में किसी पैथी को अपनी अवैज्ञानिक दवायें जरूरतमंद मरीजों पर थोपने का हक नहीं मिल जाता। वह भी सनातन संस्कृति के नाम पर। विज्ञान सबके लिए बराबर है। एक मात्र विज्ञान ही बराबर है। एक मात्र विज्ञान ही सबके लिए एक है- भले धर्म, मत, ईश्वर एक ना हों।
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