लखनऊ से जगदीश जोशी
उर्मिल जी से पहली बार अब से करीब सैंतीस वर्ष पूर्व ‘स्वतंत्र भारत’ अखबार के दफ्तर में मिला। मैं सुबह की पारी में करीब नौ बजे आफिस पहुंच कर कुर्सी पर बैठा ही था कि वह आए और एक कागज मेरे सामने टेबल पर रख कर लौट गए। पहले मैंने उनकी ओर देखा, फिर उस कागज पर लिखे शब्दों को पढ़ा। कागज पर हेडिंग पड़ी थी- सप्ताह की नौटंकी। इतना पढ़ते ही मैं दौड़ कर सीढियों की ओर लपका और उनके आगे जाकर रुका। पूछा- क्या आप ही उर्मिल कुमार थपलियाल जी हैं। वह मुस्कराये और सिर हिला कर स्वीकार किया। मैंने अभिवादन किया, इसके बाद चलते-चलते मैंने अपना संक्षिप्त परिचय दिया, वह बोले तब तो ‘जोशिज्यू’ आपसे अब मुलाकातें होती रहेंगी।
उस पहली मुलाकात के दौरान मैं एक बड़े व्यक्तित्व की शालीनता से भी मिला। यह शायद मेरा पहला अनुभव था, इसने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। उनसे सदा टुकड़ों-टुकड़ों में ही मुलाकात हुआ करती, कभी पांच मिनट तो कभी दस मिनट। कभी किसी प्रेक्षाग्रह में तो कभी अखबार या आकाशवाणी के दफ्तर में। स्वतंत्र भारत का क्रम टूटने के करीब एक दशक बाद में दैनिक हिन्दुस्तान के कार्यालय में उनसे नियमित मुलाकातें होती रहीं। याद आ रहा है किसी दिन मैंने उनसे हाथरस-कानपुर की लोक विधा नौटंकी को अपनाने के बारे में उनसे सवाल किया था। जवाब मिला- जीवन में जो परिवर्तन स्वाभाविक तौर पर हुआ करते हैं, उन्हें होने दिया जाना चाहिए। कभी भी जल्दबाजी न करें, अभिव्यक्ति को बांध कर भी न रखें। जिंदगी को बिजली की तरह चालू या बंद नहीं किया जा सकता।
हालात के कारण मैं पहाड़ से मैदान में आ गया और अब मैदान की लोकविधा सीख रखा हूं। ये समझिए यह रुझान नैसर्गिक तौर पर हुआ। फिर आकाशवाणी की जरूरत ने मुझे इसके गहराई से अध्ययन को प्रेरित किया। मुझे इसमें प्रयोग करना अच्छा लगने लगा। हमने कभी भी नौटंकी के व्याकरण के साथ छेड़छाड़ नहीं की, हां, उसके विषय जरूर आधुनिक कर दिए। पूरी रात की नौटंकी को दिखाया नहीं, पढ़ाया।
वास्तव में उनका जैसा प्रयोगधर्मी विरला ही होता है। उनके पहले कोई कल्पना कर सकता था कि नौटंकी देखने के बजाए पढ़ी जाए।
मेरी पीढ़ी और उसके पहले और बाद की पीढ़ी, जिसने भी उर्मिल जी को पढ़ा है, वह कह सकता है कि नौटंकी पढ़ने में बहुत आनंद आता है। नौटंकी के ग्रामर के तत्वों यथा सूत्रधार, नट, नटी को उन्होंने ज्यों का त्यों रखा। उनका नक्कारा विषय के मूड के हिसाब से आवाज करता है। यह महसूस करने की चीज है, अनुभूति का विषय है। उनकी कही कुछ-कुछ बातें याद आ रही हैं, कई बार वह बाद में समझ आती थीं, बहुत आसान तरीके से बड़ी कह देते थे उर्मिल जी। एक बार कभी उन्होंने कहा- कला शहर में नहीं गांव में पैदा होती है। शहर उसे शास्त्र बना देता है, पढ़ाने लगता है। रंगकर्म में ऑवर्जेशन या अनुभूति जरूरी होता है। इसे गंडा बांध कर सिखाया नहीं जा सकता। इसे सीखने की उम्र नहीं होती, जब भी अंदर से जाग्रत हो जाए, तभी अभिव्यक्त होने लगती है। जीवन को यथार्थ रूप में देखता है रंगमंच।
एक बार दूरदर्शन के साथ उनका इंटरव्यू देखा तो उनकी गूढ़ बातों का रहस्य समझ में आया। इंटरव्यू में वह कहते हैं- जो प्राकृतिक है वही मौलिक है। प्राकृतिक तौर पर कोई बदलाव आ रहा है तो आने दें। आधुनिक चलन तो बांध बनाता है, नैसर्गिक प्रवाह को रोकता है। हमें शहर की दोहरी मानसिकता से उबरना है। तभी कलाएं जन्म लेंगी, नैसर्गिक कलाकारों का दस्तावेजीकरण होना चाहिए। इसी इंटरव्यू में वह सलाह देते हैं कि इलाकाई रंगमंच प्रशिक्षण केन्द्र को अपने क्षेत्र की लोककलाओं को भी पढ़ाना-सिखाना चाहिए।
उन्होंने बताया कि उनके दादा जी ने भी कई नाटक लिखे थे। जब वर्ष 1911 में जयशंकर प्रसाद जी काशी में ध्रुवस्वामिनी लिख रहे थे तो तभी उनके दादा जी उत्तराखंड में प्रहलाद नाटक लिख रहे थे। दोनों लेखकों के बीच इतना भौतिक फासला मगर दोनों की सोच लगभग समान थी। यह कैसे हुआ, मेरी समझ में अब तक नहीं आया।
वह बताया करते- वर्ष 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में नौकरी लगी। सआदतगंज के मंदिर में नौटंकी होती थी, उसे पहली बार देखा तो कुछ रस आया। फिर तो नियमित जाने लगा, इसी दौरान कानपुर की गुलाब बाई और हाथरस के गिरिराज जी की नौटंकी देखने को मिली।
हवा महल के नाटक लिखा करता था, कभी-कभी प्रोग्राम कुछ छोटे बनते तो समय पूरा करने लिए फिलर लगाया करते थे। वहीं से कुछ सरकारी प्रोग्रामों के संदेशों को नई विधा और आम बोलचाल की भाषा में पेश करने का विचार आया। स्टाफ के लोगों ने सहयोग किया और एक, दो मिनट के फिलरों को नौटंकी विधा में पेश किया जाने लगा। यहीं से शुरुआत हुई।
उर्मिल जी को केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी और यूपी संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कार, हिंदी संस्थान के साथ ही यश भारती एवार्ड भी मिला। इन सबके साथ वह कहते थे कि मेरे लिए तो वही सबसे बड़ा सम्मान है जब रंगकर्मियों ने मुझे एक रंगकर्मी मानना शुरू कर दिया। ऐसे सहज और सरल प्रतिभाशाली कलाकार कम ही मिलते हैं। उनको श्रद्धासुमन, उर्मिल जी- आज ‘नक्कारा’ बोल नहीं पा रहा है, पूरी तरह खामोश है।
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